छग.. गठबंधन और सियासत

राजकुमार साहू

 छग की राजनीति के 18 बरसों में ‘गठबंधन की राजनीति’ अब तक सफल नहीं हो सकी है। कांग्रेस ने 2008 के चुनाव में एनसीपी से एक सीट पर गठबंधन किया था, उसके भी नतीजे कांग्रेस के पक्ष में नहीं आए थे। इस बार 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-बसपा गठबंधन की सुगबुगाहट शुरू हुई है। 2013 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार छग का विधानसभा चुनाव बड़ा दिलचस्प होने वाला है, क्योंकि समीकरण बिगाड़ने के लिए कांग्रेस, भाजपा और बसपा के अलावा जनता कांग्रेस छग और आम आदमी पार्टी भी मैदान में है। जेसीसीजे और आप, दोनों पार्टियों की तैयारी भी जोरों पर है। ऐसे में कांग्रेस-बसपा गठबंधन के मुद्दे पर भी तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं कि गठबंधन होने और नहीं होने पर, किसे नफा-नुकसान हो सकता है ? छग में अभी तक किसी भी पार्टी का प्रदेश स्तर पर विधानसभा चुनाव को लेकर गठबंधन नहीं हुआ है। उसकी वजह भी है, सभी पार्टियों की विचारधारा और कार्य पद्धति अलग-अलग होना। छग में 1984 से बहुजन समाज पार्टी ( बसपा ) का उदय हुआ। बसपा ने 90 के दशक में अपनी उपस्थिति तेजी से बढ़ाई और अविभाजित मप्र और छग बनने के बाद हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी से विधायक भी चुने गए और बसपा, अपने बड़े वोट बैंक को एक या दो सीटों की जीत में ही तब्दिल कर पाई।

                 कांग्रेस-बसपा गठबंधन की चर्चा के बीच यह भी चर्चा शुरू हो गई है कि गठबंधन होते हैं तो उसके नतीजे क्या होंगे ? और उसके दूरगामी परिणाम क्या निकलकर आएंगे ? इन मुद्दों पर तमाम कयास और चचाएं भी शुरू हो गई हैं, क्योंकि इस साल 3 राज्यांे छग, मप्र और राजस्थान में विधानसभा चुनाव है, जहां अब तक बसपा अपने दम पर चुनाव लड़ती रही है और खासी उपस्थिति दर्ज कराती रही है। छग में बीते 6 चुनावों में कोई न कोई सीट बसपा जीतती रही है और वोट बैंक भी बढ़ता रहा है। छग में बसपा ने 2008 के चुनाव में 6 फीसदी वोट बटोरी थी, फिर 2013 में वोट के आंकड़े जरूर कुछ कम हुए थे, लेकिन छग में बसपा की उपस्थिति दमदार थी। 2013 में एक सीट पर जीत के साथ पार्टी, कई सीटों पर दूसरे और तीसरे स्थान पर रही।

              अब सवाल यही है कि छग में बसपा की मजबूत उपस्थिति के बाद भी कांग्रेस से गठबंधन की चर्चा आम क्यों है ? कांग्रेस भी 15 साल से सत्ता से दूर है और ऐसे में कांग्रेस भी गठबंधन की दिशा में हाथ बढ़ा रही है, लेकिन इस गठबंधन के पीछे पेंच बहुत है, कई तरह की आशंकाएं भी हैं कि गठबंधन के बाद चुनाव के समीकरण क्या होंगे ? गठबंधन के बाद बसपा, जैसी जीत की अपेक्षा रखी है, क्या वैसे ही नतीजे आएंगे ? फिलहाल, गठबंधन की चर्चा है, इस पर अंतिम फैसला आना बाकी है। कांग्रेस-बसपा में सीटों के बंटवारे में भी रस्साकस्सी काफी दिनों से चल रही है। इस तरह अभी तय कर पाना मुश्किल है कि गठबंधन होगा ही ?, क्योंकि गठबंधन को लेकर जिन सीटों की बात सामने आ रही है, वहां गठबंधन का मामला अटक भी सकता है, क्योंकि कुछ सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस काफी मजबूत है। चर्चा में है कि कांग्रेस-बसपा गठबंधन को लेकर कुछ सीटों के बंटवारे पर सहमति बनती दिख रही है, लेकिन कुछ सीटों को लेकर ‘गठबंधन’ खटाई में पड़ सकता है। राजनीतिक जानकारों की मानें तो कांग्रेस-बसपा के गठबंधन होता है तो इसके दूरगामी परिणाम भी होंगे। गठबंधन से यह तय नहीं है कि जिन सीटों पर गठबंधन होगा, वहां जीत मिलेगी ही ? वजह भी कई हैं, क्योंकि कांग्रेस और बसपा के अपने वोट बैंक हैं और ये वोट, प्रत्याशी के चेहरे के साथ भी बदलते रहे हैं। हर विधानसभा में सभी पार्टी के एक निश्चित वोट बैंक है, लेकिन यह वोट भी प्रत्याशी के चेहरे के साथ बदलते रहते हैं। पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो वोटरों ने प्रत्याशी को देखकर वोटिंग की और वोट भी डायवर्ट हुए। ऐसी स्थिति में गठबंधन के बाद परिणाम, किसके पक्ष में होंगे, इस पर संशय नतीजे तक बरकरार रहेगा ?

                  छग में कांग्रेस और बसपा, दोनों एक-दूसरे के खिलाफ अब तक विस चुनाव लड़ती रही हैं और इस बार दोनों ही पार्टियों में चुनाव लड़ने वालों की लंबी फेहरिस्त भी है। ऐसे हालात में कांग्रेस और बसपा, दावेदारी कर रहे उन नेताओं को कैसे भरोसे में लेगी, जो कई साल से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं ? गठबंधन होता है तो ऐसे दावेदारों के विधानसभा पहुंचने की चाहत अधूरी रह सकती है तो चुनावी समीकरण बदल भी सकता है ? ऐसे में गठबंधन होने पर कांग्रेस के नेताओं का बसपा को कितना साथ मिलेगा, कहना मुश्किल है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस जिन विस क्षेत्रों में गठबंधन करके लड़ेगी, वहां बसपा के नेताओं या कार्यकर्ताओं का कितना सपोर्ट मिलेगा, उस पर संशय बना रहेगा ? इस तरह गठबंधन के नफा-नुकसान को लेकर भी राजनीतिक गलियारे में जमकर चर्चा शुरू हो गई है।

              छग में 90 सीट पर बसपा शुरू से ही चुनाव लड़ती रही है और गठबंधन के बाद यदि कुछ सीट पर बसपा चुनाव लड़ती है तो छग की बची हुई सीटों के कार्यकर्ताओं का क्या मनोबल नहीं टूटेगा, यह भी बड़ा सवाल है ? 90 में से कुछ विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ने के बाद दूसरे क्षेत्रों के बसपा नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के भावनात्मक जुड़ाव पर क्या असर नहीं पड़ेगा ? सवाल यह भी है कि गठबंधन के बाद, अन्य क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं को बसपा अपने साथ रहने, आगे कैसे रोक पाएगी ? ऐसे तमाम मुद्दे हैं, जिससे गठबंधन का मुद्दा गरम होने के बाद, ठंडा भी पड़ जाता है। फिलहाल, छग की राजनीति में कांग्रेस-बसपा गठबंधन की चर्चाओं का ही शोर है। कुछ दिनों में तय हो जाएगा कि आखिर छग की राजनीति में गठबंधन होगा या फिर पहले की तरह दोनों पार्टियां कांग्रेस-बसपा, इंडिपेंडेंट चुनाव मैदान में होंगी ?

                 विधानसभा चुनाव में सीटों की राजनीति के बीच, भविष्य में छग की राजनीति पर इसका परिणाम भी देखने को मिलेगा, क्योंकि गठबंधन कभी भी स्थायी नहीं रहा है। गठबंधन, हमेशा तात्कालिक राजनीतिक स्थिति के आधार पर बनता है। ऐसे में छग में बसपा का दायरा, सीटों के बंटवारे के हिसाब सिमट सकता है, वहीं पुराने गठबंधन के रिकार्ड बताते हैं कि कांग्रेस को भी गठबंधन से छग में विस चुनाव में कोई लाभ नहीं मिला है। भले ही गठबंधन की चर्चाओं को कांग्रेस और बसपा इसे तात्कालिक हालात में लिया गया फैसला बताए, लेकिन गठबंधन के आगे दूरगामी परिणाम भी होगा, यह समझा जा सकता है। छग की राजनीति में बसपा, ज्यादा सीट जीतने भले ही अब तक चूकी हो, लेकिन छग की राजनीति व चुनावों में अब तक बसपा का बड़ा दमखम और वजूद रहा है। छग के 15 से 20 विधानसभा क्षेत्रों में बसपा का बहुत बड़ा वोट बैंक है। इस तरह गठबंधन से बसपा के समीकरण भी बदल सकते हैं ? खास बात यह है कि जिन सीटों पर गठबंधन की बात सामने आ रही है, क्या वहां गठबंधन होने पर बसपा जीत ही जाएगी ? गठबंधन से क्या जीत निश्चित होगी ? ऐसे तमाम सवाल है, जो गठबंधन की चर्चा के साथ छग की राजनीति में सामने आए हैं। चुनावों में पार्टी और चेहरे के साथ वोटों का बंटवारा होते आ रहा है। स्थानीय चुनावों से लेकर विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस और बसपा के वोट डायवर्ट होते रहे हैं। ऐसे ही समीकरणों ने गठबंधन के तमाम कयासों को जन्म दिया है, जिन पर चर्चाओं का सिलसिला भी शुरू हो गया है।

              इस तरह राजनीतिक गठबंधन की स्थिति वहां के माहौल पर तय होगा ? केवल गठबंधन से ही जीत की नींव तैयार नहीं होगी ? उल्टे, चुनाव में गठबंधन से एक दूसरा पक्ष भी छूटेगा, जिससे चुनाव में अंदरूनी झटका भी दोनों पार्टियों को मिल सकता है, क्योंकि सभी पार्टी के नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षा होती है और जब चुनाव लड़ने की तैयारी करने वाले नेताओं की महत्वाकांक्षा टूटेगी तो फिर गठबंधन के सफल परिणाम की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है ?